ये जो फूलों से भरा शहर हुआ करता था
उस के मंज़र हैं दिल-आज़ार कहीं और चलें
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पहले ग़म-ए-फ़ुर्क़त के ये तेवर तो नहीं थे
मुझे अपने रूप की धूप दो कि चमक सकें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द
मकीनों के तअल्लुक़ ही से याद आती है हर बस्ती
वो पहली जैसी वहशतें वो हाल ही नहीं रहा
जुदाइयों की ख़लिश उस ने भी न ज़ाहिर की
किसी ने दिल के ताक़ पर जला के रख दिया हमें
भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार कहीं और चलें
ये बरसों का तअल्लुक़ तोड़ देना चाहते हैं हम
बंदे ज़मीन और आसमाँ सरमा की शब कहानियाँ
तुम्हें जब कभी मिलें फ़ुर्सतें मिरे दिल से बोझ उतार दो
ढूँडते क्या हो इन आँखों में कहानी मेरी
किसी को हम से हैं चंद शिकवे किसी को बेहद शिकायतें हैं