आरज़ू थी खींचते हम भी कोई अक्स-ए-हयात
क्या करें अब के लहू आँखों से टपका ही नहीं
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शहर शहर ढूँड आए दर-ब-दर पुकार आए
कितनी तवील क्यूँ न हो बातिल की ज़िंदगी
रास्ते के पेच-ओ-ख़म क्या शय हैं सोचा ही नहीं
याद-ए-फ़िराक-ए-यार तिरा शुक्रिया बहुत
जब भी मिलता हूँ वही चेहरा लिए
माँ ने लिखा है ख़त में जहाँ जाओ ख़ुश रहो
तार-ए-नज़र भी ग़म की तमाज़त से ख़ुश्क है
हर उजाला नई सहर तो नहीं
दो पल के हैं ये सब मह ओ अख़्तर न भूलना
'अजमल' न आप सा भी कोई सख़्त-जाँ मिला
वक़्त-ए-सफ़र क़रीब है बिस्तर समेट लूँ
फ़िरऔन-ए-वक़्त कोई भी हो सर-कशी करो