तार-ए-नज़र भी ग़म की तमाज़त से ख़ुश्क है
वो प्यास है मिले तो समुंदर समेट लूँ
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आज़ार बहुत लज़्ज़त-ए-आज़ार बहुत है
जब भी मिलता हूँ वही चेहरा लिए
शहर शहर ढूँड आए दर-ब-दर पुकार आए
तिरी नज़र भी नहीं हर्फ़-ए-मुद्दआ भी नहीं
हज़ार मंज़िल-ए-ग़म से गुज़र चुके लेकिन
फ़िरऔन-ए-वक़्त कोई भी हो सर-कशी करो
रास्ते के पेच-ओ-ख़म क्या शय हैं सोचा ही नहीं
'अजमल' न आप सा भी कोई सख़्त-जाँ मिला
ऐ हुस्न जब से राज़ तिरा पा गए हैं हम
कितनी तवील क्यूँ न हो बातिल की ज़िंदगी
हर घड़ी रहता है अब ख़दशा मुझे