हज़ार मंज़िल-ए-ग़म से गुज़र चुके लेकिन
अभी जुनून-ए-मोहब्बत की इब्तिदा भी नहीं
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माँ ने लिखा है ख़त में जहाँ जाओ ख़ुश रहो
तिरी नज़र भी नहीं हर्फ़-ए-मुद्दआ भी नहीं
रास्ते के पेच-ओ-ख़म क्या शय हैं सोचा ही नहीं
दो पल के हैं ये सब मह ओ अख़्तर न भूलना
हर उजाला नई सहर तो नहीं
जब भी मिलता हूँ वही चेहरा लिए
कितनी तवील क्यूँ न हो बातिल की ज़िंदगी
'अजमल' न आप सा भी कोई सख़्त-जाँ मिला
वक़्त-ए-सफ़र क़रीब है बिस्तर समेट लूँ
ऐ हुस्न जब से राज़ तिरा पा गए हैं हम
तार-ए-नज़र भी ग़म की तमाज़त से ख़ुश्क है