इलाही कैसी कैसी सूरतें तू ने बनाई हैं
कि हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है
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अपनी गिरह से कुछ न मुझे आप दीजिए
फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
किस नाज़ से कहते हैं वो झुँझला के शब-ए-वस्ल
इल्म ओ हिकमत में हो अगर ख़्वाहिश-ए-फ़ेम
नौकरों पर जो गुज़रती है मुझे मालूम है
मज़हब का हो क्यूँकर इल्म-ओ-अमल दिल ही नहीं भाई एक तरफ़
यूँ मिरी तब्अ से होते हैं मआनी पैदा
मैं हूँ क्या चीज़ जो उस तर्ज़ पे जाऊँ 'अकबर'
आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
वज़्न अब उन का मुअ'य्यन नहीं हो सकता कुछ
ये है कि झुकाता है मुख़ालिफ़ की भी गर्दन
ख़त्म किया सबा ने रक़्स गुल पे निसार हो चुकी