ये है कि झुकाता है मुख़ालिफ़ की भी गर्दन
सुन लो कि कोई शय नहीं एहसान से बेहतर
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उम्मीद टूटी हुई है मेरी जो दिल मिरा था वो मर चुका है
मय भी होटल में पियो चंदा भी दो मस्जिद में
एक काफ़िर पर तबीअत आ गई
रंग-ए-शराब से मिरी निय्यत बदल गई
बर्क़-ए-कलीसा
आह जो दिल से निकाली जाएगी
रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत इन हसीनों से मैं क्या रक्खूँ
लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए
इक बर्ग-ए-मुज़्महिल ने ये स्पीच में कहा
साँस लेते हुए भी डरता हूँ
वज़्न अब उन का मुअ'य्यन नहीं हो सकता कुछ
सीने से लगाएँ तुम्हें अरमान यही है