एक काफ़िर पर तबीअत आ गई
पारसाई पर भी आफ़त आ गई
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एज़ाज़-ए-सलफ़ के मिटते जाते हैं निशाँ
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है
अक़्ल में जो घिर गया ला-इंतिहा क्यूँकर हुआ
'इशरती' घर की मोहब्बत का मज़ा भूल गए
लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए
रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत इन हसीनों से मैं क्या रक्खूँ
जवानी की है आमद शर्म से झुक सकती हैं आँखें
डाल दे जान मआ'नी में वो उर्दू ये है
इलाही कैसी कैसी सूरतें तू ने बनाई हैं
दिल हो ख़राब दीन पे जो कुछ असर पड़े
रहमान के फ़रिश्ते गो हैं बहुत मुक़द्दस
हर चंद बगूला मुज़्तर है इक जोश तो उस के अंदर है