नौकरों पर जो गुज़रती है मुझे मालूम है
बस करम कीजे मुझे बेकार रहने दीजिए
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इश्वा भी है शोख़ी भी तबस्सुम भी हया भी
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
यहाँ की औरतों को इल्म की परवा नहीं बे-शक
हूँ मैं परवाना मगर शम्अ तो हो रात तो हो
ये दिलबरी ये नाज़ ये अंदाज़ ये जमाल
हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक
फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
ये है कि झुकाता है मुख़ालिफ़ की भी गर्दन
जल्वा-ए-दरबार-ए-देहली
जो वक़्त-ए-ख़त्ना मैं चीख़ा तो नाई ने कहा हँस कर
इल्म ओ हिकमत में हो अगर ख़्वाहिश-ए-फ़ेम