मज़हब का हो क्यूँकर इल्म-ओ-अमल दिल ही नहीं भाई एक तरफ़
मज़हब का हो क्यूँकर इल्म-ओ-अमल दिल ही नहीं भाई एक तरफ़
क्रिकेट की खिलाई एक तरफ़ कॉलेज की पढ़ाई एक तरफ़
क्या ज़ौक़-ए-इबादत हो उन को जो बस के लबों के शैदा हैं
हलवा-ए-बहिश्ती एक तरफ़ होटल की मिठाई एक तरफ़
ताऊन-ओ-तप और खटमल मच्छर सब कुछ है ये पैदा कीचड़ से
बम्बे की रवानी एक तरफ़ और सारी सफ़ाई एक तरफ़
मज़हब का तो दम वो भरते हैं बे-पर्दा बुतों को करते हैं
इस्लाम का दा'वा एक तरफ़ ये काफ़िर-अदाई एक तरफ़
हर सम्त तो है एक दाम-ए-बला रह सकते हैं ख़ुश किस तरह भला
अग़्यार की काविश एक तरफ़ आपस की लड़ाई एक तरफ़
क्या काम चले क्या रंग जमे क्या बात बने कौन उस की सुने
है 'अकबर'-ए-बेकस एक तरफ़ और सारी ख़ुदाई एक तरफ़
फ़रियाद किए जा ऐ 'अकबर' कुछ हो ही रहेगा आख़िर-कार
अल्लाह से तौबा एक तरफ़ साहब की दुहाई एक तरफ़
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