हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है
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सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही
दुख़्तर-ए-रज़ ने उठा रक्खी है आफ़त सर पर
मज़हब का हो क्यूँकर इल्म-ओ-अमल दिल ही नहीं भाई एक तरफ़
जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा
ख़ुदा से माँग जो कुछ माँगना है ऐ 'अकबर'
लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सब को
आह जो दिल से निकाली जाएगी
दिल-ए-मायूस में वो शोरिशें बरपा नहीं होतीं
तिफ़्ल में बू आए क्या माँ बाप के अतवार की
मेरे हवास इश्क़ में क्या कम हैं मुंतशिर
जवानी की है आमद शर्म से झुक सकती हैं आँखें
सीने से लगाएँ तुम्हें अरमान यही है