दुख़्तर-ए-रज़ ने उठा रक्खी है आफ़त सर पर
ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ
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रहता है इबादत में हमें मौत का खटका
आज आराइ-ए-शगेसू-ए-दोता होती है
मेरी तक़दीर मुआफ़िक़ न थी तदबीर के साथ
जो वक़्त-ए-ख़त्ना मैं चीख़ा तो नाई ने कहा हँस कर
मैं हूँ क्या चीज़ जो उस तर्ज़ पे जाऊँ 'अकबर'
इस गुलिस्ताँ में बहुत कलियाँ मुझे तड़पा गईं
डाल दे जान मआ'नी में वो उर्दू ये है
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
नाज़ क्या इस पे जो बदला है ज़माने ने तुम्हें
मिरा मोहताज होना तो मिरी हालत से ज़ाहिर है
दिल-ए-मायूस में वो शोरिशें बरपा नहीं होतीं
नई तहज़ीब से साक़ी ने ऐसी गर्म-जोशी की