कॉलेज से आ रही है सदा पास पास की
ओहदों से आ रही है सदा दूर दूर की
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पूछा 'अकबर' है आदमी कैसा
तकमील में उन उलूम के हो मसरूफ़
मिल गया शरअ से शराब का रंग
आज आराइ-ए-शगेसू-ए-दोता होती है
पड़ जाएँ मिरे जिस्म पे लाख आबले 'अकबर'
वो लुत्फ़ अब हिन्दू मुसलमाँ में कहाँ
ग़ज़ब है वो ज़िद्दी बड़े हो गए
'इशरती' घर की मोहब्बत का मज़ा भूल गए
हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का
हवा-ए-शब भी है अम्बर-अफ़्शाँ उरूज भी है मह-ए-मुबीं का
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम