वो लुत्फ़ अब हिन्दू मुसलमाँ में कहाँ
अग़्यार उन पर गुज़रते हैं अब ख़ंदा-ज़नाँ
झगड़ा कभी गाय का ज़बाँ की कभी बहस
है सख़्त मुज़िर ये नुस्ख़ा-ए-गाव-ज़बाँ
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ये बात ग़लत कि दार-उल-इस्लाम है हिन्द
बोले कि तुझ को दीन की इस्लाह फ़र्ज़ है
इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम
'इशरती' घर की मोहब्बत का मज़ा भूल गए
ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
ग़ज़ब है वो ज़िद्दी बड़े हो गए
जिस तरफ़ उठ गई हैं आहें हैं
बूढ़ों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करें
लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए
रंग-ए-शराब से मिरी निय्यत बदल गई