बोले कि तुझ को दीन की इस्लाह फ़र्ज़ है
मैं चल दिया ये कह के कि आदाब अर्ज़ है
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लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सब को
लिपट भी जा न रुक 'अकबर' ग़ज़ब की ब्यूटी है
ग़ज़ब है वो ज़िद्दी बड़े हो गए
ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है
तुम नाक चढ़ाते हो मिरी बात पे ऐ शैख़
अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके
अक़्ल में जो घिर गया ला-इंतिहा क्यूँकर हुआ
पड़ जाएँ मिरे जिस्म पे लाख आबले 'अकबर'
मेरे हवास इश्क़ में क्या कम हैं मुंतशिर
बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है
सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही