ग़ज़ब है वो ज़िद्दी बड़े हो गए
मैं लेटा तो उठ के खड़े हो गए
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कहाँ वो अब लुत्फ़-ए-बाहमी है मोहब्बतों में बहुत कमी है
क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक
अब तो है इश्क़-ए-बुताँ में ज़िंदगानी का मज़ा
इश्क़-ए-बुत में कुफ़्र का मुझ को अदब करना पड़ा
तहसीन के लायक़ तिरा हर शेर है 'अकबर'
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
डाल दे जान मआ'नी में वो उर्दू ये है
जवानी की है आमद शर्म से झुक सकती हैं आँखें
बोले कि तुझ को दीन की इस्लाह फ़र्ज़ है
बूढ़ों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करें