तहसीन के लायक़ तिरा हर शेर है 'अकबर'
अहबाब करें बज़्म में अब वाह कहाँ तक
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गले लगाएँ करें प्यार तुम को ईद के दिन
कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के
जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का
मैं हूँ क्या चीज़ जो उस तर्ज़ पे जाऊँ 'अकबर'
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
नई तहज़ीब से साक़ी ने ऐसी गर्म-जोशी की
इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम
मेहरबानी है अयादत को जो आते हैं मगर
हर चंद बगूला मुज़्तर है इक जोश तो उस के अंदर है
जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा
जल्वा न हो मअ'नी का तो सूरत का असर क्या
हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से