पूछा 'अकबर' है आदमी कैसा
हँस के बोले वो आदमी ही नहीं
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फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
आशिक़ी का हो बुरा उस ने बिगाड़े सारे काम
फिर गई आप की दो दिन में तबीअ'त कैसी
दश्त-ए-ग़ुर्बत है अलालत भी है तन्हाई भी
समझ में साफ़ आ जाए फ़साहत इस को कहते हैं
हवा-ए-शब भी है अम्बर-अफ़्शाँ उरूज भी है मह-ए-मुबीं का
तदबीर करें तो इस में नाकामी हो
जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का
कहाँ वो अब लुत्फ़-ए-बाहमी है मोहब्बतों में बहुत कमी है
अक़्ल में जो घिर गया ला-इंतिहा क्यूँकर हुआ
धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह का
मेरे हवास इश्क़ में क्या कम हैं मुंतशिर