धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह का
चंदा वसूल होता है साहब दबाव से
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ख़िलाफ़-ए-शरअ कभी शैख़ थूकता भी नहीं
असर ये तेरे अन्फ़ास-ए-मसीहाई का है 'अकबर'
इश्वा भी है शोख़ी भी तबस्सुम भी हया भी
रहता है इबादत में हमें मौत का खटका
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
नौकरों पर जो गुज़रती है मुझे मालूम है
उन्हें भी जोश-ए-उल्फ़त हो तो लुत्फ़ उट्ठे मोहब्बत का
बे-पर्दा नज़र आईं जो कल चंद बीबियाँ
दुख़्तर-ए-रज़ ने उठा रक्खी है आफ़त सर पर
रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत इन हसीनों से मैं क्या रक्खूँ
जज़्बा-ए-दिल ने मिरे तासीर दिखलाई तो है