ख़िलाफ़-ए-शरअ कभी शैख़ थूकता भी नहीं
मगर अंधेरे उजाले में चूकता भी नहीं
Anwar Masood
Allama Iqbal
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Ahmad Faraz
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क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक
हल्क़े नहीं हैं ज़ुल्फ़ के हल्क़े हैं जाल के
उन्हें भी जोश-ए-उल्फ़त हो तो लुत्फ़ उट्ठे मोहब्बत का
ख़ुशी है सब को कि ऑपरेशन में ख़ूब निश्तर ये चल रहा है
मदरसा अलीगढ़
हर एक को नौकरी नहीं मिलने की
जब ग़म हुआ चढ़ा लीं दो बोतलें इकट्ठी
कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया
मिरा मोहताज होना तो मिरी हालत से ज़ाहिर है
जवानी की है आमद शर्म से झुक सकती हैं आँखें
किस नाज़ से कहते हैं वो झुँझला के शब-ए-वस्ल
समझ में साफ़ आ जाए फ़साहत इस को कहते हैं