बे-पर्दा नज़र आईं जो कल चंद बीबियाँ
'अकबर' ज़मीं में ग़ैरत-ए-क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो मैं ने आप का पर्दा वो क्या हुआ
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों के पड़ गया
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आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
हर चंद बगूला मुज़्तर है इक जोश तो उस के अंदर है
इश्वा भी है शोख़ी भी तबस्सुम भी हया भी
दिल मिरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला
कॉलेज से आ रही है सदा पास पास की
हाल-ए-दिल मैं सुना नहीं सकता
नाज़ क्या इस पे जो बदला है ज़माने ने तुम्हें
असर ये तेरे अन्फ़ास-ए-मसीहाई का है 'अकबर'
कह दो कि मैं ख़ुश हूँ रखूँ गर आप को ख़ुश
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
रुस्वा वो हुआ जो मस्त पैमाना हुआ
रंग-ए-शराब से मिरी निय्यत बदल गई