रुस्वा वो हुआ जो मस्त पैमाना हुआ
लपका जो साया पर वो दीवाना हुआ
इंग्लैण्ड से अपना दिल जो लाया न दुरुस्त
महरूम उधर इधर से बेगाना हुआ
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इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है
मेरे हवास इश्क़ में क्या कम हैं मुंतशिर
ख़ुदा अलीगढ़ की मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे
वस्ल हो या फ़िराक़ हो 'अकबर'
शैख़ की दावत में मय का काम क्या
इश्वा भी है शोख़ी भी तबस्सुम भी हया भी
इक बोसा दीजिए मिरा ईमान लीजिए
रहता है इबादत में हमें मौत का खटका
तुम नाक चढ़ाते हो मिरी बात पे ऐ शैख़
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
रहमान के फ़रिश्ते गो हैं बहुत मुक़द्दस
आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते