शैख़ की दावत में मय का काम क्या
एहतियातन कुछ मँगा ली जाएगी
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नई तहज़ीब से साक़ी ने ऐसी गर्म-जोशी की
यूँ मिरी तब्अ से होते हैं मआनी पैदा
हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए
रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत इन हसीनों से मैं क्या रक्खूँ
इल्म ओ हिकमत में हो अगर ख़्वाहिश-ए-फ़ेम
वो लुत्फ़ अब हिन्दू मुसलमाँ में कहाँ
हवा-ए-शब भी है अम्बर-अफ़्शाँ उरूज भी है मह-ए-मुबीं का
इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है
हल्क़े नहीं हैं ज़ुल्फ़ के हल्क़े हैं जाल के
क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
मअ'नी को भुला देती है सूरत है तो ये है