शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें
मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें
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यूँ मिरी तब्अ से होते हैं मआनी पैदा
उन्हें भी जोश-ए-उल्फ़त हो तो लुत्फ़ उट्ठे मोहब्बत का
मुझ को तो देख लेने से मतलब है नासेहा
उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़
लीडरों की धूम है और फॉलोवर कोई नहीं
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
ये दिलबरी ये नाज़ ये अंदाज़ ये जमाल
वस्ल हो या फ़िराक़ हो 'अकबर'
न रूह-ए-मज़हब न क़ल्ब-ए-आरिफ़ न शाइराना ज़बान बाक़ी
कहाँ वो अब लुत्फ़-ए-बाहमी है मोहब्बतों में बहुत कमी है
वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे
तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से