तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
होता है शगुफ़्ता मगर इतना नहीं होता
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हर चंद बगूला मुज़्तर है इक जोश तो उस के अंदर है
जल्वा न हो मअ'नी का तो सूरत का असर क्या
यहाँ की औरतों को इल्म की परवा नहीं बे-शक
बर्क़-ए-कलीसा
फ़र्ज़ी लतीफ़ा
बूढ़ों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करें
क्या वो ख़्वाहिश कि जिसे दिल भी समझता हो हक़ीर
बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी
मैं भी ग्रेजुएट हूँ तुम भी ग्रेजुएट
नई तहज़ीब से साक़ी ने ऐसी गर्म-जोशी की
हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
अपनी गिरह से कुछ न मुझे आप दीजिए