सौ जान से हो जाऊँगा राज़ी मैं सज़ा पर
पहले वो मुझे अपना गुनहगार तो कर ले
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जब यास हुई तो आहों ने सीने से निकलना छोड़ दिया
अब तो है इश्क़-ए-बुताँ में ज़िंदगानी का मज़ा
उम्मीद टूटी हुई है मेरी जो दिल मिरा था वो मर चुका है
ख़ुदा से माँग जो कुछ माँगना है ऐ 'अकबर'
बुतों के पहले बंदे थे मिसों के अब हुए ख़ादिम
पूछा 'अकबर' है आदमी कैसा
हक़ीक़ी और मजाज़ी शायरी में फ़र्क़ ये पाया
दिल हो ख़राब दीन पे जो कुछ असर पड़े
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
इक बोसा दीजिए मिरा ईमान लीजिए
हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
गले लगाएँ करें प्यार तुम को ईद के दिन