सौ जान से हो जाऊँगा राज़ी मैं सज़ा पर
पहले वो मुझे अपना गुनहगार तो कर ले
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पूछा 'अकबर' है आदमी कैसा
हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
यूँ मिरी तब्अ से होते हैं मआनी पैदा
ख़ुदा अलीगढ़ की मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे
तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
यहाँ की औरतों को इल्म की परवा नहीं बे-शक
शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें
फ़र्ज़ी लतीफ़ा
जब मैं कहता हूँ कि या अल्लाह मेरा हाल देख
मय भी होटल में पियो चंदा भी दो मस्जिद में
इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है
एज़ाज़-ए-सलफ़ के मिटते जाते हैं निशाँ