मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं
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एक काफ़िर पर तबीअत आ गई
ग़फ़लत की हँसी से आह भरना अच्छा
पूछा 'अकबर' है आदमी कैसा
अब तो है इश्क़-ए-बुताँ में ज़िंदगानी का मज़ा
रहता है इबादत में हमें मौत का खटका
ये दिलबरी ये नाज़ ये अंदाज़ ये जमाल
मैं भी ग्रेजुएट हूँ तुम भी ग्रेजुएट
हक़ीक़ी और मजाज़ी शायरी में फ़र्क़ ये पाया
पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा
भूलता जाता है यूरोप आसमानी बाप को
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बोले कि तुझ को दीन की इस्लाह फ़र्ज़ है