ग़फ़लत की हँसी से आह भरना अच्छा
अफ़आल-ए-मुज़िर से कुछ न करना अच्छा
'अकबर' ने सुना है अहल-ए-ग़ैरत से यही
जीना ज़िल्लत से हो तो मरना अच्छा
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मैं भी ग्रेजुएट हूँ तुम भी ग्रेजुएट
लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सब को
मैं हूँ क्या चीज़ जो उस तर्ज़ पे जाऊँ 'अकबर'
बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए
मेरी ये बेचैनियाँ और उन का कहना नाज़ से
उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़
नई तहज़ीब से साक़ी ने ऐसी गर्म-जोशी की
इक बोसा दीजिए मिरा ईमान लीजिए
ये है कि झुकाता है मुख़ालिफ़ की भी गर्दन
असर ये तेरे अन्फ़ास-ए-मसीहाई का है 'अकबर'
जान शायद फ़रिश्ते छोड़ भी दें
रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत इन हसीनों से मैं क्या रक्खूँ