पब्लिक में ज़रा हाथ मिला लीजिए मुझ से
साहब मिरे ईमान की क़ीमत है तो ये है
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यूँ मिरी तब्अ से होते हैं मआनी पैदा
बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी
रुस्वा वो हुआ जो मस्त पैमाना हुआ
ये बात ग़लत कि दार-उल-इस्लाम है हिन्द
हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
तकमील में उन उलूम के हो मसरूफ़
हाल-ए-दिल मैं सुना नहीं सकता
ख़त्म किया सबा ने रक़्स गुल पे निसार हो चुकी
दुख़्तर-ए-रज़ ने उठा रक्खी है आफ़त सर पर
इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम
मिरा मोहताज होना तो मिरी हालत से ज़ाहिर है
कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के