वो अगर आ न सके मौत ही आई होती
हिज्र में कोई तो ग़म-ख़्वार हमारा होता
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ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए
इक वो कि आरज़ुओं पे जीते हैं उम्र भर
मुझे ले चल
है क़यामत तिरे शबाब का रंग
इश्क़ को नग़्मा-ए-उम्मीद सुना दे आ कर
ख़यालिस्तान-ए-हस्ती में अगर ग़म है ख़ुशी भी है
उस के अहद-ए-शबाब में जीना
मुझे है ए'तिबार-ए-वादा लेकिन
झूम कर बदली उठी और छा गई
आँसू
इक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
उन को बुलाएँ और वो न आएँ तो क्या करें