है क़यामत तिरे शबाब का रंग
रंग बदलेगा फिर ज़माने का
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यूँ तो किस फूल से रंगत न गई बू न गई
दिल-ओ-दिमाग़ को रो लूँगा आह कर लूँगा
मोहब्बत की दुनिया में मशहूर कर दूँ
अगर वो अपने हसीन चेहरे को भूल कर बे-नक़ाब कर दे
अब जी में है कि उन को भुला कर ही देख लें
मुद्दतें हो गईं बिछड़े हुए तुम से लेकिन
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए
ईद आई है ऐश-ओ-नोश का सामाँ कर
किसी मग़रूर के आगे हमारा सर नहीं झुकता
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या
दावत