ईद आई है ऐश-ओ-नोश का सामाँ कर
इक साक़ी-ए-गुल-एज़ार को मेहमाँ कर
क़ुर्बानी है वाजिब आज 'अख़्तर' तू भी
तौबा को ख़ुदा के नाम पर क़ुर्बां कर
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उन को बुलाएँ और वो न आएँ तो क्या करें
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या
वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए
मिट चले मेरी उमीदों की तरह हर्फ़ मगर
ऐ इश्क़ कहीं ले चल
मोहब्बत की दुनिया में मशहूर कर दूँ
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए
नज़्र-ए-वतन
आँसू
आश्ना हो कर तग़ाफ़ुल आश्ना क्यूँ हो गए
ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब
उस मह-जबीं से आज मुलाक़ात हो गई