जन्नत का समाँ दिखा दिया है मुझ को
कौनैन का ग़म भुला दिया है मुझ को
कुछ होश नहीं कि हूँ मैं किस आलम में
साक़ी ने ये क्या पिला दिया है मुझ को
Ahmad Faraz
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उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है
मुझे दोनों जहाँ में एक वो मिल जाएँ गर 'अख़्तर'
इन वफ़ादारी के वादों को इलाही क्या हुआ
यक़ीन-ए-वादा नहीं ताब-ए-इंतिज़ार नहीं
कूचा-ए-हुस्न छुटा तो हुए रुस्वा-ए-शराब
हमारे हाथ में कब साग़र-ए-शराब नहीं
थक गए हम करते करते इंतिज़ार
तमन्नाओं को ज़िंदा आरज़ूओं को जवाँ कर लूँ
दावत
मुझे है ए'तिबार-ए-वादा लेकिन
ला पिला साक़ी शराब-ए-अर्ग़वानी फिर कहाँ