थक गए हम करते करते इंतिज़ार
इक क़यामत उन का आना हो गया
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चमन में रहने वालों से तो हम सहरा-नशीं अच्छे
उन को बुलाएँ और वो न आएँ तो क्या करें
ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब
वादा उस माह-रू के आने का
भुला बैठे हो हम को आज लेकिन ये समझ लेना
किस की आँखों का लिए दिल पे असर जाते हैं
आओ बे-पर्दा तुम्हें जल्वा-ए-पिन्हाँ की क़सम
यारो कू-ए-यार की बातें करें
मय-ख़ाना-ब-दोश हैं घटाएँ साक़ी
है क़यामत तिरे शबाब का रंग
दिल-ओ-दिमाग़ को रो लूँगा आह कर लूँगा
बदनाम हो रहा हूँ