मय-ख़ाना-ब-दोश हैं घटाएँ साक़ी
पैमाना-फ़रोश हैं फ़ज़ाएँ साक़ी
इक जाम पिला के मस्त कर दे मुझ को
ग़ारत-गर-ए-होश हैं हवाएँ साक़ी
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वक़्त की क़द्र
चमन में रहने वालों से तो हम सहरा-नशीं अच्छे
उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं
दावत
न भूल कर भी तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू करते
थक गए हम करते करते इंतिज़ार
अगर वो अपने हसीन चेहरे को भूल कर बे-नक़ाब कर दे
है क़यामत तिरे शबाब का रंग
न वो ख़िज़ाँ रही बाक़ी न वो बहार रही
इश्क़ को नग़्मा-ए-उम्मीद सुना दे आ कर
इक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
ला पिला साक़ी शराब-ए-अर्ग़वानी फिर कहाँ