ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब
ऐश की तरह अगर ग़म भी गवारा होता
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अँगूठी
उन को बुलाएँ और वो न आएँ तो क्या करें
माना कि सब के सामने मिलने से है हिजाब
वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए
ईद आई है ऐश-ओ-नोश का सामाँ कर
थक गए हम करते करते इंतिज़ार
जहाँ 'रेहाना' रहती थी
ख़फ़ा हैं फिर भी आ कर छेड़ जाते हैं तसव्वुर में
किस की आँखों का लिए दिल पे असर जाते हैं
दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िंदगी
यारो कू-ए-यार की बातें करें
उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं