याद आओ मुझे लिल्लाह न तुम याद करो
मेरी और अपनी जवानी को न बर्बाद करो
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इक वो कि आरज़ुओं पे जीते हैं उम्र भर
उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं
उस के अहद-ए-शबाब में जीना
निकहत-ए-ज़ुल्फ़ से नींदों को बसा दे आ कर
दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िंदगी
अगर वो अपने हसीन चेहरे को भूल कर बे-नक़ाब कर दे
मुझे है ए'तिबार-ए-वादा लेकिन
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या
ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब
भुला बैठे हो हम को आज लेकिन ये समझ लेना
बजा कि है पास-ए-हश्र हम को करेंगे पास-ए-शबाब पहले
नन्हा क़ासिद