दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िंदगी
'अख़्तर' वो बे-ख़ुदी के ज़माने किधर गए
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दिल-ए-दीवाना ओ अंदाज़-ए-बेबाकाना रखते हैं
ख़फ़ा हैं फिर भी आ कर छेड़ जाते हैं तसव्वुर में
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए
दिल में ख़याल-ए-नर्गिस-ए-जानाना आ गया
मैं आरज़ू-ए-जाँ लिखूँ या जान-ए-आरज़ू!
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें
आओ बे-पर्दा तुम्हें जल्वा-ए-पिन्हाँ की क़सम
यक़ीन-ए-वादा नहीं ताब-ए-इंतिज़ार नहीं
मुझे ले चल
यूँ तो किस फूल से रंगत न गई बू न गई
बरखा-रुत
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या