मिट चले मेरी उमीदों की तरह हर्फ़ मगर
आज तक तेरे ख़तों से तिरी ख़ुशबू न गई
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न भूल कर भी तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू करते
उठते नहीं हैं अब तो दुआ के लिए भी हाथ
ग़म अज़ीज़ों का हसीनों की जुदाई देखी
अगर वो अपने हसीन चेहरे को भूल कर बे-नक़ाब कर दे
ईद आई है ऐश-ओ-नोश का सामाँ कर
ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब
उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है
बदनाम हो रहा हूँ
मुझे दोनों जहाँ में एक वो मिल जाएँ गर 'अख़्तर'
उस मह-जबीं से आज मुलाक़ात हो गई
वो अगर आ न सके मौत ही आई होती