मोहब्बत के इक़रार से शर्म कब तक
कभी सामना हो तो मजबूर कर दूँ
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नन्हा क़ासिद
वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दें
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या
दिल-ओ-दिमाग़ को रो लूँगा आह कर लूँगा
इक वो कि आरज़ुओं पे जीते हैं उम्र भर
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए
उस मह-जबीं से आज मुलाक़ात हो गई
मोहब्बत की दुनिया में मशहूर कर दूँ
भुला बैठे हो हम को आज लेकिन ये समझ लेना
ईद आई है ऐश-ओ-नोश का सामाँ कर
मुझे ले चल
न वो ख़िज़ाँ रही बाक़ी न वो बहार रही