ग़म-ए-ज़माना ने मजबूर कर दिया वर्ना
ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते
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ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब
ग़म-ए-आक़िबत है न फ़िक्र-ए-ज़माना
ग़म अज़ीज़ों का हसीनों की जुदाई देखी
ऐ इश्क़ कहीं ले चल
झूम कर बदली उठी और छा गई
थक गए हम करते करते इंतिज़ार
अश्क-बारी न मिटी सीना-फ़िगारी न गई
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए
अब वो बातें न वो रातें न मुलाक़ातें हैं
मोहब्बत के इक़रार से शर्म कब तक
किस की आँखों का लिए दिल पे असर जाते हैं