चारों तरफ़ हैं शोले हम-साए जल रहे हैं
मैं घर में बैठा बैठा बस हाथ मल रहा हूँ
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जाना तो बहुत दूर है महताब से आगे
तह-ब-तह है राज़ कोई आब की तहवील में
इश्क़ में तहज़ीब के हैं और ही कुछ फ़लसफ़े
लकीर खींच के बैठी है तिश्नगी मिरी
कभी कभी कितना नुक़सान उठाना पड़ता है
इस फ़ैसले से ख़ुश हैं अफ़राद घर के सारे
तब्दीलियों का नश्शा मुझ पर चढ़ा हुआ है
हर घर में कोई तह-ख़ाना होता है
सियाह रात के बदन पे दाग़ बन के रह गए
हमेशा दिल में रहता है कभी गोया नहीं जाता
बहुत सुकून से रहते थे हम अँधेरे में
हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं