ये है ख़ुलासा-ए-इल्म-ए-क़लंदरी कि हयात
ख़दंग-ए-जस्ता है लेकिन कमाँ से दूर नहीं
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परेशाँ कारोबार-ए-आश्नाई
वही अस्ल-ए-मकान-ओ-ला-मकाँ है
मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
मार्च 1907
करम तेरा कि बे-जौहर नहीं मैं
हर इक मक़ाम से आगे गुज़र गया मह-ए-नौ
मकानी हूँ कि आज़ाद-ए-मकाँ हूँ?
जवानों को मिरी आह-ए-सहर दे
फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
आँख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं
महीने वस्ल के घड़ियों की सूरत उड़ते जाते हैं