करम तेरा कि बे-जौहर नहीं में
ग़ुलाम-ए-तुग़रुल-ओ-संजर नहीं मैं
जहाँ बीनी मिरी फ़ितरत है लेकिन
किसी जमशेद का साग़र नहीं मैं
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ख़िरद वाक़िफ़ नहीं है नेक-ओ-बद से
तिरी दुनिया जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
सौदा-गरी नहीं ये इबादत ख़ुदा की है
हज़ार ख़ौफ़ हो लेकिन ज़बाँ हो दिल की रफ़ीक़
बदल के भेस फिर आते हैं हर ज़माने में
रहा न हल्क़ा-ए-सूफ़ी में सोज़-ए-मुश्ताक़ी
यूँ हाथ नहीं आता वो गौहर-ए-यक-दाना
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
न हो तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी तो मैं रहता नहीं बाक़ी
क्या इश्क़ एक ज़िंदगी-ए-मुस्तआ'र का