दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है
Faiz Ahmad Faiz
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बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ
तुझे किताब से मुमकिन नहीं फ़राग़ कि तू
तस्वीर-ए-दर्द
फ़िर्क़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं
हमदर्दी
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
मोती समझ के शान-ए-करीमी ने चुन लिए
मकतबों में कहीं रानाई-ए-अफ़कार भी है
एक सरमस्ती ओ हैरत है सरापा तारीक
मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का
ख़ुदी के ज़ोर से दुनिया पे छा जा