ढूँडता फिरता हूँ मैं 'इक़बाल' अपने आप को
आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूँ मैं
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एक पहाड़ और गिलहरी
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
मिटा दिया मिरे साक़ी ने आलम-ए-मन-ओ-तू
की हक़ से फ़रिश्तों ने 'इक़बाल' की ग़म्माज़ी
ख़िरद के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं
फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर
मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का
इल्म में भी सुरूर है लेकिन
कहा 'इक़बाल' ने शैख़-ए-हरम से
मोती समझ के शान-ए-करीमी ने चुन लिए
आलम-ए-आब-ओ-ख़ाक-ओ-बाद सिर्र-ए-अयाँ है तू कि मैं
मक़ाम-ए-शौक़ तिरे क़ुदसियों के बस का नहीं