आए बुत-ख़ाने से काबे को तो क्या भर पाया
जा पड़े थे तो वहीं हम को पड़ा रहना था
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कुछ ख़ार ही नहीं मिरे दामन के यार हैं
न वाइज़ हज्व कर एक दिन दुनिया से जाना है
तरफ़-ए-काबा न जा हज के लिए नादाँ है
बाक़ी न दिल में कोई भी या रब हवस रहे
शब-ए-विसाल बहुत कम है आसमाँ से कहो
आशिक़ का बाँकपन न गया बाद-ए-मर्ग भी
गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है 'अमीर'
सीधी निगाह में तिरी हैं तीर के ख़्वास
हुआ जो पैवंद मैं ज़मीं का तो दिल हुआ शाद मुझ हज़ीं का
वो और वा'दा वस्ल का क़ासिद नहीं नहीं
कौन उठाएगा तुम्हारी ये जफ़ा मेरे बाद
वस्ल में ख़ाली हुई ग़ैर से महफ़िल तो क्या