गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है 'अमीर'
क़द्र खो देता है हर रोज़ का आना जाना
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कहते हो कि हमदर्द किसी का नहीं सुनते
आए बुत-ख़ाने से काबे को तो क्या भर पाया
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
गर्द उड़ी आशिक़ की तुर्बत से तो झुँझला कर कहा
पहले तो मुझे कहा निकालो
सौ शेर एक जलसे में कहते थे हम 'अमीर'
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा
हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शमाइल ठहरा
शब-ए-विसाल बहुत कम है आसमाँ से कहो
मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ का क़िस्सा न पूछिए