गर्द उड़ी आशिक़ की तुर्बत से तो झुँझला कर कहा
वाह सर चढ़ने लगी पाँव की ठुकराई हुई
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ये भी इक बात है अदावत की
तिरा क्या काम अब दिल में ग़म-ए-जानाना आता है
है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार
कौन उठाएगा तुम्हारी ये जफ़ा मेरे बाद
तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़
पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया
मिरा ख़त उस ने पढ़ा पढ़ के नामा-बर से कहा
वो और वा'दा वस्ल का क़ासिद नहीं नहीं
समझता हूँ सबब काफ़िर तिरे आँसू निकलने का
शाएर को मस्त करती है तारीफ़-ए-शेर 'अमीर'