कौन उठाएगा तुम्हारी ये जफ़ा मेरे बाद
याद आएगी बहुत मेरी वफ़ा मेरे बाद
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हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़
ख़ुश्क सेरों तन-ए-शाएर का लहू होता है
देख ले बुलबुल ओ परवाना की बेताबी को
हटाओ आइना उम्मीद-वार हम भी हैं
साफ़ कहते हो मगर कुछ नहीं खुलता कहना
रास्ते और तवाज़ो' में है रब्त-ए-क़ल्बी
गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है 'अमीर'
अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ
पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया
वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
'अमीर' अब हिचकियाँ आने लगी हैं