रास्ते और तवाज़ो' में है रब्त-ए-क़ल्बी
जिस तरह लाम अलिफ़ में है अलिफ़ लाम में है
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शाख़ों से बर्ग-ए-गुल नहीं झड़ते हैं बाग़ में
हटाओ आइना उम्मीद-वार हम भी हैं
समझता हूँ सबब काफ़िर तिरे आँसू निकलने का
पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया
हम जो पहुँचे तो लब-ए-गोर से आई ये सदा
आया न एक बार अयादत को तू मसीह
वस्ल की शब भी ख़फ़ा वो बुत-ए-मग़रूर रहा
कहते हो कि हमदर्द किसी का नहीं सुनते
क़रीब है यारो रोज़-ए-महशर छुपेगा कुश्तों का ख़ून क्यूँकर
करता मैं दर्दमंद तबीबों से क्या रुजूअ
ज़ब्त देखो उधर निगाह न की
पहले तो मुझे कहा निकालो